इस फिल्मी ब्लॉग का उद्देश्य
में ही बात करते हैं-'कुछ अलग हट के लिखने और बताने की
चाह' । ये हर नया ब्लॉगर दावा करता है कि उसका मसाला
अलग सा है। मैं कोई दावा नहीं करूंगा ना ही ऐसा करने की
इच्छा है मन में। उद्देश्य है कि हिंदी फ़िल्म सिनेमा के इतिहास
में अभी तक जारी हुए संगीत में से दुर्लभ और अच्छे गीतों को
आप तक पहुँचाना। इस प्रयास में कई दुर्लभ गीतों पर भी चर्चा
होगी। कुछ गीत जो हमें अनजाने से लगते हैं उनके ऊपर भी
थोडा प्रकाश डालने की तमन्ना है. वर्षों का मेरा अनुभव और
कलाकारों के बारे में मेरी जानकारी व्यर्थ ही जायेगी अगर इसको
मैं आपसे न बांटूं तो।
फिल्मी पत्रकारों और संगीत विशेषज्ञों की राय पढ़ते पढ़ते मुझे
कई साल हो गए हैं । पढने के शौक के चलते मुझे बहुत सी
जानकारी प्राप्त होती रही । इसका स्रोत अखबार, पत्रिकाएं, संगीत
गोष्ठियां और संगीत प्रेमियों की आपसी चर्चा होती थीं । इन्टरनेट
के पदार्पण के बाद हमें जानकारी का भण्डार हाथ लग गया ।
इस के साथ साथ कचरा भी हाथ लगा ढेर सारा. इसी मध्यम से
वो लोग भी जुड़े जो आम् तौर पर अपने विचारों को अपने तक
ही सीमित रखते थे। धारणाएं बदली, स्वाद बदला, सिक्के का दूसरा
तीसरा पहलू नज़र आने लगा । यह भी मालूम हुआ कि दुनिया
में तरह तरह के दिग्गज हैं. कुछ विषय पर माहिर तो कुछ लेखन
कला में दक्ष । पाठक भी बहुतेरे हैं और ज्ञानी पाठकों की कमी नहीं.
इतिहास एक अर्ध सत्य की तरह होता है. जैसा प्रस्तुत किया जाए,
आगे की पीड़ी उसे वैसा ही मानने लग जाती है। सबसे बढ़िया
उदाहरण अभी हाल में ही हिटलर की मौत से जुड़े तथ्यों पर प्रश्नचिन्ह
लगना है । इसके थोड़े ही पहले जनता को ये मालूम हुआ कि प्रसिद्ध
लेखक विलिअम शेक्सपीअर पुरूष नहीं, बल्कि एक महिला थी जो
छद्म नाम से लिखा करती थी। हिंदी सिनेमा में भी नाटकीयता बहुत
है और एक कलाकार अपनी बात बदल भी लेता है कई बार. अपनी
सुविधा का सत्य यहाँ भी प्रस्तुत किया जाता है. फ़िल्मी पत्रिकाएं
गॉसिप और मसालेदार ख़बरें ज्यादा छपा करती हैं. साथ में कई
तथ्यपूर्ण लेख भी होते हैं. ये जनता को तय करना होता है कि
वो किस चीज़ पर विश्वास करे.
मीडिया और न्यूज़ चैनल में बढोत्तरी से कुछ फायदे हुए तो कुछ
नुक्सान भी हुए । फायदे में ये-कि किसी भी ख़बर को विडियो के
साथ दिखाया जाता है तो उसकी प्रमाणिकता पर संदेह की गुंजाईश
कम रह जाती है । नुक्सान ये है कि किसी बाद में डूबते हुए आदमी
को देख कर चैनल का पत्रकार उसकी तरफ़ माइक दिखा के पूछता
है-आपको कैसा लग रहा है, जब पानी आया तो आप फुटबॉल खेल
रहे थे या सिगरेट फूंक रहे थे?
ये किसी प्राकृतिक विपदा या दुर्घटना पर चैनल द्वारा लिया जाने वाला
श्रेय-ये ख़बर आप तक सबसे पहले हमने पहुंचाई। पत्रकार की नज़र
तो वही होगी, चाहे वो जिस भी मसले पर लिखे ये बोले । अगर किसी
पत्रकार को बैंगन पसंद नहीं होगा तो वो उसकी इतनी बुराइयाँ गिना
देगा कि आम पाठक एक बार सोचने लग जाएगा-बैंगन खाना सबसे
बड़ा पाप है। या फ़िर वो सब्जियों का जिक्र इस तरह से करेगा कि
बैंगन नाम की चीज़ अस्तित्व में ही नहीं है। ये उदाहरण लगभग सभी
व्यक्तियों, वस्तुओं पर लागू हो जाता है मेरे अनुभव अनुसार।
वही हाल हमारी फिल्मी पत्रकारिता का भी रहा । किसी विशेष संगीतकार
या फ़िल्म निर्देशक और गायक के ऊपर चर्चा करते करते उनका बुढापा
आ गया । जिसने पेरिस शहर की शक्ल न देखी हो, वो पेरिस के वास्तु
पर चर्चा करता मिल जाता है । आधे से ज्यादा समीक्षकों को विषय-वस्तु
की जानकारी नहीं होती, वे केवल एक मार्केटिंग प्रतिनिधि का कार्य सा
करते हैं जैसा कि आप सर में बाल उगाने वाले कॉमर्शियल प्रोग्राम में
देखते हैं टीवी चैनल्स पर। उन कार्यक्रमों में 'अच्छा' और 'बढ़िया' शब्दों
के अलावा आपको कुछ भी सुनाई नहीं देगा । जो पात्र चुने जाते हैं
उनसे शायद ही किसी उपभोक्ता का सामना कभी होता हो। वैसा ही कुछ
समीक्षा का हाल है। नियम ये है कि एक बार आपकी दुकान चल गई
तो आप ५ स्टार समीक्षक हो जाते हैं।
आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता की वो मालेगांव जा कर ये
पता करे कि प्याज़ की फसल ख़राब हो गई है, इसलिए मंडी में भाव
बढ गया है या आवक कम है मांग ज्यादा इसलिए । वो बस अपने टीवी
से चिपका, दिखाई जा रही ख़बरों पर ही यकीन कर लेता है। वैसे भी
अधिकतर चैनलों का कार्यक्षेत्र महानगरों तक सीमित रहता है । कभी-कभार
जब वे भूले भटके गाँव में पहुँच जाते हैं तो उनको हर चीज़ अजूबा नज़र
आती है।
पुराने गीतों के अलावा मेरा ध्यान गैर फिल्मी गीतों और भक्ति संगीत पर भी
रहता है। नए गीतों में भी कौन सा लंबे समय तक सुनने लायक है ये पहचान
लेना मेरे लिए आसान है । तो आइये इस सफर को यादगारबनायें. आप चाहें
तो यहाँ अपनी फरमाईश भी दे सकते हैं, बेहतरी के लिए आपके सुझावों का
स्वागत रहेगा हमेशा. उम्मीद है यहाँ संगीत भक्त केवल पोस्ट कॉपी करने
नहीं आयेंगे बल्कि कुछ सार्थक चर्चा भी करेंगे.
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