हिंदी गीतों में हिंदी भाषा का व्यायाम
स्वेटर सिलाई सी उधेड़बुन होती रही है। शब्दों के खिलाडी कब
और कहाँ मर्म पर चोट कर दें, ये अंदाजा लगाना असंभव है।
कहने और अभिव्यक्त करने के तरीके में परिवर्तन के साथ ही
भावना भी बदल जाती है। यहाँ अभिव्यक्ति का तात्पर्य उस धुन
से है जिस पर सवार हो के गीत रचना अठखेलियाँ करती है ।
उदाहरण- जब साहिर कहते हैं-"ऐसे नहीं भूलो जरा देखो औकात"
तो श्रोता कह उठते हैं -वाह वाह। शर्त ये है कि प्रयोग उच्च कोटि
के गीतकार या साहित्यकार की कलम से प्रकट होना चाहिए।
इसी बात को किसी गुमनाम गीतकार और ने कहा होता तो
निर्देशक उसे घर का रास्ता दिखा देता । दोहरे मापदंड भी है इस
मामले में।
प्रयोगधर्मिता में गुलज़ार का नाम सहज ही दिमाग में आ जाता है.
छंद से मुक्त स्वच्छंद प्रकृति की उनकी दो रचनाएँ उल्लेखनीय हैं
- एक ही ख्वाब-किनारा और मेरा कुछ सामान-इज़ाजत। इनको
हम आसानी से लए बद्ध गद्य रचनाएँ कह सकते हैं। इनको कम्पोज़
करने में पंचम अर्थात राहुल देव बर्मन का ख़ासा योगदान है। ये
प्रयोग सराहनीय हैं मगर हर दूसरे तीसरे गीत में चाँद की टांग
खींचने से आपको नासा वाले चाँद की सैर पर नहीं भेजने वाले।
गुलशन बावरा भी धुर साहित्यिक नज़र आते हैं जब वे कहते हैं
"अंदाज़ मटकने का ...........आफरीन आफरीन " एक दो शब्द
तक तो शायद हम डिसकाउंट कर दिया करते हैं, विशेषकर उन
स्थितियों में जब लीक से हटकर कुछ ही शब्द गीत में प्रयोग में
लाये गये हों। रचनाकार इक्का दुक्का चालू भाषा के शब्दों का प्रयोग
करने के लिए स्वतंत्र है। हर बार तो यह संभव नहीं हो पाता कि
तुकबंदी की लगाम कसने के लिए कर्णप्रिय शब्दों का ही सहारा
लिया जाये । एक और बात है की भैंस को डंडा दिखाना हो तो
चारू चन्द्र की चंचल किरणें क्या करेंगी ?
गुणवत्त्ता एक तुलनात्मक शब्द है जिसका अर्थ है उपलब्ध साधनों
में से बेहतर का चुनाव करने का पैमाना । इसे भी हम लोग ही बनाते हैं।
एक दिन एक चर्चा के दौरान खटिया पटिया और लंगोटिया गीतों का
विषय निकला। लगभग सभी ने भर्त्सना वाले अंदाज़ में गीतकारों को
कोसा। इनमें से कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी थे जिनके आईपॉड में खटिया
पटिया गीतों की पूरी वैराइटी मिल जायेगी । खटिया शब्द का सबसे
सार्थक प्रयोग हुआ है इस गाने में-"सरकाए लेयो खटिया जाड़ा लगे"
रचना का उचित मूल्यांकन करने के लिए रचनाकार के जैसी समृद्ध
और उपजाऊ बुद्धि होना भी आवश्यक है। भाषा पर पकड़ और
अभिव्यक्ति दोनों के बीच बारीक सी रेखा है। भाषा के सर्कस में काम
करने वाले प्राणी अक्सर मूल बात से ध्यान भटकाकर पाठक और
श्रोता को अपनी लेखनी की रोशनी में नहलाने का प्रयत्न करते हैं।
कमोबेश यही काम इस देश के नेता भी करते हैं।
आम आदमी के सामने चुनाव एक समस्या है। गीतों में चुनाव करे,
फिल्मों में चुनाव, नायक नायिका का चुनाव, खलनायक का चुनाव,
फिल्म कथानक का चुनाव करे-क्या देखे और क्या क्यूँ ना देखे।
तथाकथित अलग हट के बनी फ़िल्में भी वही घिसे पिटे फार्मूले
भरा सामान निकलती हैं। अगर आम चुनाव की बात करें तो बद
और बदतर में से चुनने का विकल्प है। सीरियल की बात करें तो
सास बहू या डरावना सीरियल के विकल्प हैं। आम आदमी अपनी
पसंद चुनने के लिए स्वतंत्र कहाँ है । आज तक किसी निर्माता या
निर्देशक ने कुछ बनाने के पहले जनता से पूछा कि वो क्या देखना
चाहती है ? नागरिक अधिकारों की बात केवल राशन पानी और
शाब्दिक अभिव्यक्ति तक ही सीमित है । ये होना चाहिये, वो होना
चाहिये।
बम्बइया भाषा से बॉलीवुड का रिश्ता बहुत पुराना है। कोई भी श्रोता
"देव आनंद पे फिल्माए गए गाने -खाली पीली काहे को बोम्ब मारता है
-फिल्म : तमाशा से जो भरत व्यास ने लिखा है ऊँगली नहीं उठाता। हम
जो आम दर्शक के सामने प्रस्तुत करेंगे वो उसी को पसंद करने लगेगा।
बुद्धू बक्सा के आगमन के पहले आम जनता का शौक बच्चे पैदा करना
हुआ करता था। उसमे बदलाव तो आया कम से कम। जो काम तमाम
परिवार नियोजन की योजनायें नहीं कर पायीं वो काम दूरदर्शन ने कर
दिखाया ।
लोकगीत फिल्मों और पॉप म्यूजिक में के अवतार में आकर लोकप्रिय
गीत बन जाते हैं। एक लोकप्रिय गाना है इला अरुण का गाया हुआ
"निगोडी कैसी जवानी है " इसमें उन्मुक्तता से विभिन्न शब्दों का प्रयोग
हुआ है । ये प्राकट्य वर्ष में अपने समय-से-आगे वाला गीत कहलाता
था.
अब तो ज़माना भेलपुरी भाषा का है। जैसी फिल्म वैसे गाने। मसलन
-लव के लिए कुछ भी करेगा , प्यार के साइड एफ्फेक्ट्स वगैरह वगैरह ।
ये फिल्मों में भाषा का संक्रमण काल है. रीमिक्स में तो बाकायदा घुट्टी
बनाई जाती है, जो न बनाने वाले के समझ में आये न सुनने वाले के ।
रही बात लालू या किसी और नेता द्वारा मिश्रित भाषा बोलने की, तो एक
बात पर हमें विचार करना आवश्यक है की भाषा संवाद का माध्यम है।
आज अगर बम्बैया या यू पी बिहार की भाषा से सुसज्जित हिंदी सुनने
को मिल रही है, तो इसके पीछे अवश्य कुछ कारकों का योगदान होगा।
क्या हमारे साहित्यकार, गीतकार और रचनाकार आम आदमी को अपनी
भाषा से जोड़ने में सफल नहीं हो पाए ? उनके प्रयासों में कहीं कमी रह गई
या दोष हमारी शिक्षा प्रणाली का है जिसने अधकचरी भाषा बोलने वाली
पीड़ियों को तैयार किया है। दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि आमजन
के बीच लोकप्रिय चीज़ों को नए अंदाज़ में पब्लिक के लोकप्रिय नायकों
की मुख से निकलवा के लोक कलाकारों के हिस्से की मलाई खुद चट
कर जाओ।
है ना बहुत ही झकास मामू ! बोले तो टन फोर । चर्चा जारी रहेगी......
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Hindi geeton mein bhasha ka vyayam-Article
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