इतना टूटा हूँ के-गुलाम अली ग़ज़ल
की याद आ जाती है. दिलजले ऐसी भावनाएं नहीं निकाला
करते, ये तो उससे भी बढ़ कर कहीं और एक झंझोडे हुए,
लतियाये हुए, धकियाये हुए, लताड़े हुए, दुखियारे की टीस
जैसी कुछ चीज़ सुनाई देती है. वक्त कब किसी का बैंड बजा
दे किसी को नहीं पता.
नाउम्मीदी की इन्तेहा क्या होती है इस गज़ल से बखूबी हम
समझ सकते हैं. एक कम्प्रोमाईजिंग स्तिथि में व्यक्ति पहुँच
जाता है जिंदगी में तब वो जैसे जिंदगी चलाना चाहती है वैसे
ही चलने लगता है सारे लोजिक, किन्तु परन्तु एक तरफ कर
के. गज़ल लिखी है : मोईन नज़र ने और इसका संगीत स्वयं
गुलाम अली ने तैयार किया है.
गज़ल के बोल:
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
पूछकर मेरा पता वक्त रायदा न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा
हर तरफ़ धुंध है, जुगनू है, न चराग कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा
ज़िन्दगी मैं भी मुसाफिर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँग
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा
फूल रह जायेंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मै तो खुशबु हूँ फिज़ाओं में बिखर जाऊँगा
इतना टूटा हूँ के छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
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Itna toota hoon-Ghulam Ali
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