ग़म की अंधेरी रात में-सुशीला १९६६
और रफ़ी ने गाया है. ऐसे गीत कुल जमा शायद तीन ही हैं जिनमें तलत
और रफ़ी की आवाजें हैं. दो गीत आप पहले सुन चुके हैं और अब इसे
सुन लेते हैं.
जान निसार अख्तर के बोल हैं और सी अर्जुन का संगीत. सन १९६६ में
सी अर्जुन बड़ा नाम नहीं था मगर इस गीत से उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली.
बाद में प्रसिद्धि की जितनी भी कमी थी वो जय संतोषी माँ के गीतों से
उन्हें प्राप्त हो गई.
जावेद अख्तर को शायद ज़रूरत है जां निसार अख्तर के लेखन को
ध्यान से पढ़ने की जिसके बाद उन्हें जैसे कि, वैसे कि शब्दों के प्रयोग
से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी.
जावेद अख्तर एक अच्छे पटकथा लेखक ज़रूर रहे होंगे मगर उनके
गीत लेखन में उम्दापन के सबूत टुकड़ों-टुकड़ों और छर्रों-छर्रों में
मिलते हैं. इसे वे नियमित कर सकें तो सर्वकालिक श्रेष्ठ गीतकारों की
सूची में शामिल हो जायेंगे.
गीत के बोल:
ग़म की अंधेरी रात में
दिल को ना बेक़रार कर
सुबह ज़रूर आयेगी
सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में
दर्द है सारी ज़िन्दगी
जिसका कोई सिला नहीं
दिल को फ़रेब दीजिये
और ये हौसला नहीं
और ये हौसला नहीं
खुद से तो बदग़ुमाँ ना हो
खुद पे तो ऐतबार कर
सुबह ज़रूर आयेगी
सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अन्धेरी रात में
खुद ही तड़प के रह गये
दिल की सदा से क्या मिला
आगे से खेलते रहे
हमको वफ़ा से क्या मिला
हमको वफ़ा से क्या मिला
दिल की लगी बुझा ना दे
दिल की लगी से प्यार कर
सुबह ज़रूर आयेगी
सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में
जिससे ना दिल बहाल सके
ऐसी खबर से फायदा
रात अभी ढली कहाँ
ख्वाब-ए-सहर से फायदा
ख्वाब-ए-सहर से फायदा
अपने आप बहार आएगी
दौर-ऐ-खिजां गुज़ार कर
सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में
दिल को ना बेक़रार कर
सुबह ज़रूर आयेगी
सुबह का इन्तज़ार कर
ग़म की अंधेरी रात में
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Gham ki andheri raat mein-Sushila 1966
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