दीवारों से मिलकर रोना-पंकज उधास गज़ल
सन १९९० से १९९५ के बीच इनके चलन में थोड़ी गिरावट
आई. शुद्ध गज़ल प्रेमियों को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे पहले
कि तरह ग़ज़लें सुनते रहे, आनंद उठाते रहे. गज़ल प्रेमियों
का जो नया खेमा आया था आम आदमी के बीच में से,
उसकी पसंद बदलती रही ९० के बाद. फिलिमी गीतों और
गज़लों में स्विच ओवर चलता रहा जो २००० के आते आते
खत्म हो गया.
पंकज उधास ने आम आदमी के गज़ल गायक के रूप में
पहचान बना ली. शायद आप इस बात से सहमत न हों.
जब गज़ल धीमी रौशनी वाले अंग्रेजी मयखानों से निकल
कर किसी परिवहन के साधन में बजती मिले, किसी ट्रैक्टर
ट्रोली में फिट म्युज़िक सिस्टम में बजती मिले तो आप उसे
क्या कहेंगे? परिवहन के साधनों में बस, मिनी बस, टेम्पो
ऑटो रिक्शा, लोडिंग गाडियां, ट्रक वगैरह शामिल हैं.
आज सुनते हैं पंकज उधास कि एक ऐसी गज़ल जो खास
से लेकर आम तक लोकप्रिय रही और सराही गई.
गज़ल के बोल:
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे, ऐसा लगता है
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे, ऐसा लगता है
दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का कतरा भी जिनको दरिया लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे, ऐसा लगता है
किसको कैसर पत्थर मारूं कौन पराया है
शीश-महल में एक एक चेहरा अपना लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे, ऐसा लगता है
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Deewaron se mil kar-Pankaj Udhas Ghazal
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