साग़र नहीं है तो क्या है-नाटक १९७५
मोती छुपे होते हैं और आप दरवाज़े की तरफ बढ़ें तो ही पता चल
पाता है मोती की क्वालिटी और साईज़ क्या है. घर वाले मोती कुछ
खुले होते हैं और कुछ चेन से बंधे हुए.
आज सुनते हैं फिल्म नाटक से एक उम्दा गीत आनंद बक्षी का लिखा
हुआ. इसकी तर्ज़ बनाई है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने. विजय अरोड़ा और
मौसमी चटर्जी पर इसे फिल्माया गया है.
गीत के बोल:
साग़र नहीं है तो क्या है
साग़र नहीं है तो क्या है तेरी आँख का नशा तो है
बादल नहीं है तो क्या है
बादल नहीं है तो क्या है तेरी ज़ुल्फ़ की घटा तो है
साग़र नहीं है तो क्या है
मेरी तमन्ना की महफ़िल से तुम ये उठ के जाने लगे हो
ऐसी भी क्या बेरुख़ी रूठ कर हमसे आँखें चुराने लगे हो
चुराने लगे हो
मौसम नहीं है तो क्या है मौक़ा ये प्यार का तो है
साग़र नहीं है तो क्या है
तेरी घनी ज़ुल्फ़ के साये में चार पल साथ तेरे जियेंगे
साग़र से रोज़ पीते हैं आज तेरी नज़र से पियेंगे
नज़र से पियेंगे
साक़ी नहीं है तो क्या है इक शोख़ दिलरुबा तो है
साग़र नहीं है तो क्या है
शायद यही है क़यामत की रात मान लेने को जी चाहता है
तेरी क़सम आज दिल ही नहीं जान देने को जी चाहता है
जी चाहता है
क़ातिल नहीं है तो क्या है क़ाफ़िर तेरी अदा तो है
साग़र नहीं है तो क्या है हाय
साग़र नहीं है तो क्या है
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Sagar nahin hai to kya hai-Natak 1975
Artists: Vijay Arora, Moushumi Chatterji
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