अपनी उल्फत पे ज़माने का-ससुराल १९६१
मुकेश और लता मंगेशकर ने गाया है.
हसरत जयपुरी के बोल हैं और शंकर जयकिशन का संगीत.
यह गाना अपने ज़माने का लोकप्रिय गीत है. ऐसे गीतों को
रेडियो अदरक, लहसुन, प्याज ज़रा कम बजाया करते हैं.
हिसाब लगाया जाए तो इस गीत को ५९ साल हो गये
बजते बजते. गीत महमूद और शुभा खोटे पर फिल्माया
गया है.
गीत के बोल:
अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
प्यार की रात का कोई न सवेरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
पास रह कर भी बहुत दूर बहुत दूर रहे
एक बंधन में बंधे फिर भी तो हम दूर रहे
पास रह कर भी बहुत दूर बहुत दूर रहे
एक बंधन में बंधे फिर भी तो हम दूर रहे
मेरी राहों में न उलझन का अँधेरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
प्यार की रात का कोई न सवेरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
दिल मिले आँख मिली प्यार न मिलने पाये
बाग़बान कहता है दो फूल न खिलने पाये
दिल मिले आँख मिली प्यार न मिलने पाये
बाग़बान कहता है दो फूल न खिलने पाये
अपनी मंज़िल को जो काँटों ने न घेरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
अजब सुलगती हुई लकड़ियां हैं जगवाले
मिले तो आग उगलते कटे तो धुआं करें
अजब सुलगती हुई लकड़ियां हैं जगवाले
मिले तो आग उगलते कटे तो धुआं करें
अपनी दुनिया में भी सुख चैन का पहरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
प्यार की रात का कोई न सवेरा होता
तो कितना अच्छा होता तो कितना अच्छा होता
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Apni ulfat pe zamane ka-Sasural 1961
Artists: Mehmood, Shubha Khote, Dhumal
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