लैला की उँगलियाँ बेचूं-घर की लाज १९६०
हास्य का अपना अंदाज़ होता था श्वेत श्याम के ज़माने में।
बिन हास्य सब सून। जोनी वाकर एक नामचीन हास्य कलाकार
थे । मोहम्मद रफी का गाया ये गीत अनूठा है। सब्जी मंडी की
तकरीबन सभी उपलब्ध सब्जियों के नाम इसमे बहुत ही इज्ज़त
के साथ लिए गए हैं। शीरी और फरहद की सगाई ना होने का अजीब
कारण इस गाने में ढूँढिये। शकील बदायूनी का ये अंदाज़ भी आपको
जरूर पसंद आएगा।
गाने के बोल:
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मजनू की पसलियाँ बेचूं
आओ दिलवालों खाओ दिलवालों
नर्म ककडीयाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मजनू की पसलियाँ बेचूं
आओ दिलवालों खाओ दिलवालों
नर्म ककडीयाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
ओ लालाजी ओ बाबूजी
क्यूँ भूके रहकर जीते
ये जीना भी क्या जीना,
दम निकले खाते पीते
ओ लालाजी ओ बाबूजी
क्यूँ भूखे रहकर जीते
ये जीना भी क्या जीना,
दम निकले खाते पीते
प्यास बुझा लो गर्मी में
सावन की बदलियाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मजनू की पसलियाँ बेचूं
आओ दिलवालों खाओ दिलवालों
नर्म ककडीयाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मुर्गों पर ना छुरी चलाना
ले बकरों की हाय
खून किसी क्यूँ पीना
पी ले शरबत या चाय
मुर्गों पर ना छुरी चलाना
ले बकरों की हाय
खून किसी क्यूँ पीना
पी ले शरबत या चाय
रोग मिटा और हैल्थ बना
गालों की सुर्खियाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मजनू की पसलियाँ बेचूं
आओ दिलवालों खाओ दिलवालों
नर्म ककडीयाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
शीरी और फरहद की लोगों
हो ना सकी सगाई
क्यूंकि भूल से बेचारों ने
ये ककडी ना खायी
शीरी और फरहद की लोगों
हो ना सकी सगाई
क्यूंकि भूल से बेचारों ने
ये ककडी ना खायी
अरे कंवारों ले जाओ
शादी की पर्चियां बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
मजनू की पसलियाँ बेचूं
आओ दिलवालों खाओ दिलवालों
नर्म ककडीयाँ बेचूं
लैला की उँगलियाँ बेचूं
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