ज़िंदगी फूलों की नहीं-गृह प्रवेश 1979
सुनते हैं कुछ ज्यादा ही हट के बनी फिल्म गृह प्रवेश से एक गीत।
बुद्धिजीवी दो प्रकार के होते हैं-नैसर्गिक और निर्मित। पहले वाले पैदाइशी
होते हैं और दुसरे वालों को जनता दर्ज़ा प्रदान करती है। हमारे देश के कुछ
बुद्धिजीवियों की खूबी है कि वे न समझ आने वाली चीज़ों पर भी वाह वाह
कर उठते हैं। आम जनता जब समझ में कुछ नहीं आता हो तो वो उन
बुद्धिजीवियों की राय और सहमति पर निर्भर हो जाती है ।
फिल्म के कथानक को थकानक कहा जाए तो भी फर्क नहीं पड़ेगा। इसको
समझने के लिए दिमाग खपाने की ज़रूरत पढ़ती है। संजीव कुमार और
शर्मीला टैगोर ने अपने अपने हिस्से का बढ़िया अभिनय किया है। १९७९
में बनी इस फिल्म को समय से आगे की बताते हैं कुछ लोग।
प्रस्तुत गीत फिल्म के टाइटल के साथ सुनाई पढता है इसलिए इसमें गीत
का आनंद लेने के अलावा कोई कन्फ्यूज़न नहीं है। गीत गुलज़ार का लिखा
हुआ है जिसे गा रहे हैं भूपेंद्र। संगीत तैयार किया है कनु रॉय ने।
गीत के बोल:
ज़िंदगी फूलों की नहीं
फूलों की तरह महकी रहे
ज़िंदगी फूलों की नहीं
फूलों की तरह महकी रहे
ज़िंदगी
जब कोई कहीं गुल खिलता है
आवाज़ नहीं आती लेकिन
आवाज़ नहीं आती लेकिन
खुशबू की खबर आ जाती है
खुशबू महकी रहे
ज़िंदगी
जब राह कहीं कोई मुड़ती है
मंजिल का पता तो होता नहीं
मंजिल का पता तो होता नहीं
इक राह पे राह मिल जाती है
राहें मुड़ती रहें
ज़िंदगी
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Zindagi phoolon ki nahin-Griha Pravesh 1979
1 comments:
रेयर सोंग
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