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Mar 8, 2018

मचल के जब भी आँखों से-गृह प्रवेश १९७९

एक क्रिटिकली ऐक्लेडम्ड फिल्म से गीत सुनते हैं. ये विशेष किस्म की
या क्रिटिकली ऐक्लेडम्ड फ़िल्में वे होती हैं जो अलग हट के होती हैं और
बॉक्स ऑफिस से भी अलग हट के खड़ी मिलती हैं. जिनका कथानक
समझ ना आये उनको भी क्रिटिकली ऐक्लेडम्ड घोषित कर दिया जाता
है. ये जुमला ज्यादा पुराना नहीं है. इसका प्रयोग सन २००० के बाद
से होने लगा है.

फिल्म में संजीव कुमार और शर्मिला टैगोर ने अपने अपने केलिबर के
हिसाब से अभिनय किया है. कथानक अंग्रेजी फिल्मों की तरह कुछ
धीमा सा है जिसकी भारतीय दर्शकों को आदत नहीं पड़ी है अभी तक.

गुलज़ार की रचना है और कनु रॉय का संगीत. इसे भूपेंद्र ने गाया है.
फिल्म से पूर्व में आपको दो गीत हम सुनवा(कॉपी पेस्ट करवा)) चुके हैं.




गीत के बोल:

मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
सुना है आबशारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
मचल के जब भी आँखों से

खुदारा अब तो बुझ जाने दो इस जलती हुई लौ को
खुदारा अब तो बुझ जाने दो इस जलती हुई लौ को
चरागों से मज़ारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है
चरागों से मज़ारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है

मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
मचल के जब भी आँखों से
कहूँ क्या वो बड़ी मासूमियत से पूछ बैठे हैं
कहूँ क्या वो बड़ी मासूमियत से पूछ बैठे हैं
क्या सचमुच दिल के मारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है
क्या सचमुच दिल के मारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है

मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
मचल के जब भी आँखों से

तुम्हारा क्या तुम्हें तो राह दे देते हैं काँटे भी
तुम्हारा क्या तुम्हें तो राह दे देते हैं काँटे भी
मगर हम ख़ाकसारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है
मगर हम ख़ाकसारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है

मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू
सुना है आबशारों को बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से
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Machal ke jab bhi aankhon se-Griha pravesh 1979

Artists: Sanjeev Kumar, Sharmila Tagore

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Aug 4, 2011

आप अगर आप न होते-गृह प्रवेश १९७९

नायिका नंबर दो का घर में प्रवेश हो चुका है। ये है फिल्म गृह प्रवेश
से दूसरा गीत। गीत में संजीव कुमार और सारिका अपने अपने भावों
का अनुसार प्रदर्शन कर रहे हैं। कुछ रोमांस कुछ रोमांच वाला ये गीत
कर्णप्रिय है। गुलज़ार के बोल, सुलक्षणा पंडित की आवाज़ और कनु रॉय
का संगीत है। आनंद लीजिए।

उल्लेखनीय है कि कनु रॉय ने एक और लीक से हट के बनी फिल्म
आविष्कार में भी संगीत दिया है।




गीत के बोल:

आप अगर आप न होते तो भला क्या होते
लोग कहते हैं कि पत्थर के मसीहा होते

संगेमरमर के तराशे हुए चेहरे पे अगर
आ आ आ आ आ आ आ
संगेमरमर के तराशे हुए चेहरे पे अगर
आपके हँसने का अंदाज़ यही होता मगर
वो जो शरमा के झुका लेते हैं आप नज़र
ऐसे शरमाने पे हम कैसे न फ़िदा होते

आप अगर आप न होते तो भला क्या होते
लोग कहते हैं कि पत्थर के मसीहा होते

आपके माथे पे बसती है जवां शाम सहर
आपके माथे पे बसती है जवां शाम सहर
अच्छी लगती है हमें आपकी पेशानी मगर
वो जो माथे पे पसीना उभर आती है मगर
ऐसे माथे पे भला क्यों न लोग फ़िदा होते

आप अगर आप न होते तो भला क्या होते
लोग कहते हैं कि पत्थर के मसीहा होते
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Aap agar aaap na hote-Griha Pravesh 1979

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Aug 3, 2011

ज़िंदगी फूलों की नहीं-गृह प्रवेश 1979

आइये कुछ अलग हट के बनी फिल्मों से गीत सुने जाएँ । सबसे पहले
सुनते हैं कुछ ज्यादा ही हट के बनी फिल्म गृह प्रवेश से एक गीत।

बुद्धिजीवी दो प्रकार के होते हैं-नैसर्गिक और निर्मित। पहले वाले पैदाइशी
होते हैं और दुसरे वालों को जनता दर्ज़ा प्रदान करती है। हमारे देश के कुछ
बुद्धिजीवियों की खूबी है कि वे न समझ आने वाली चीज़ों पर भी वाह वाह
कर उठते हैं। आम जनता जब समझ में कुछ नहीं आता हो तो वो उन
बुद्धिजीवियों की राय और सहमति पर निर्भर हो जाती है ।

फिल्म के कथानक को थकानक कहा जाए तो भी फर्क नहीं पड़ेगा। इसको
समझने के लिए दिमाग खपाने की ज़रूरत पढ़ती है। संजीव कुमार और
शर्मीला टैगोर ने अपने अपने हिस्से का बढ़िया अभिनय किया है। १९७९
में बनी इस फिल्म को समय से आगे की बताते हैं कुछ लोग।

प्रस्तुत गीत फिल्म के टाइटल के साथ सुनाई पढता है इसलिए इसमें गीत
का आनंद लेने के अलावा कोई कन्फ्यूज़न नहीं है। गीत गुलज़ार का लिखा
हुआ है जिसे गा रहे हैं भूपेंद्र। संगीत तैयार किया है कनु रॉय ने।



गीत के बोल:


ज़िंदगी फूलों की नहीं
फूलों की तरह महकी रहे
ज़िंदगी फूलों की नहीं
फूलों की तरह महकी रहे

ज़िंदगी

जब कोई कहीं गुल खिलता है
आवाज़ नहीं आती लेकिन
आवाज़ नहीं आती लेकिन
खुशबू की खबर आ जाती है
खुशबू महकी रहे

ज़िंदगी

जब राह कहीं कोई मुड़ती है
मंजिल का पता तो होता नहीं
मंजिल का पता तो होता नहीं
इक राह पे राह मिल जाती है
राहें मुड़ती रहें

ज़िंदगी
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Zindagi phoolon ki nahin-Griha Pravesh 1979

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