चल चल रे मुसाफिर चल-पूजा १९५४
भी है. बड़े से परदे पर चेहरे का आकार भी बहुत बड़ा
दिखाई देता है. २ इंच की हंसी ५ फीट के नज़र आती
है. ऐसे में प्रभाव भी ऐसा होता है मानो किसी ने २ मन
के घन से दिमाग हिला दिया हो.
ये बात उन्हीं दृश्यों पर लागू होती है जिनसे दर्शक बंध
सा जाता है. ऐसे दृश्य या कथानक जिनसे दर्शक जुड़ाव
सा महसूस करता है. भावों की मात्रा परदे के आकार बढ़ने
के साथ ही बढती जाती है. भावों को उभारने में गीतों की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है. जैसे किसी एक्टर या एक्ट्रेस
से एक्टिंग नहीं बन रही है तो गीतों के माध्यम से भरपाई
हो जाती है.
सुनते हैं सन १९५४ की फिल्म पूजा से एक गीत रफ़ी का
गाया हुआ. जीवन दर्शन शैलेन्द्र का है और स्वर लहरी
शंकर जयकिशन की.
गीत के बोल:
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
जहाँ दिल का एक इशारा हो
और दुनिया जाए बदल
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
मस्ती भरी हवाएं
जिस गली से जाएँ फूल खिलाएं
ये मदहोश निगाहें
जिस पे टिक जाएँ अपना बनायें
ये मदहोश निगाहें
जहाँ प्यार का रास्ता कोई ना रोके
कोई ना कहे संभल
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
रूप की प्यासी आँखें
दिल में अरमान सौ तूफ़ान
आखिर कभी तो होगी
तुमसे पहचान ओ अनजान
आखिर कभी तो होगी
कभी तो रिमझिम बरसेंगे
ये रंग भरे बादल
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
यहाँ की रीत निराली
जो मौसम जाए जा के ना आये
दम भर की उजियाली
जब दिन ढल जाए दिल घबराए
दम भर की उजियाली
जहाँ उजड़े ना सिंगार किसी का
फैले ना काजल
चल चल रे मुसाफिर चल
तू उस दुनिया में चल
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Chal chal re musafir chal-Pooja 1954
1 comments:
My pleasure
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