हर घड़ी ख़ुद से उलझना-जगजीत सिंह
की खनकती आवाज़ में. एक यायावर की दास्ताँ सी
लगती इस रचना का आकार बहत छोटा है. कहानी
कभी कभी दो पन्क्तियों में ही पूरी हो जाया करती है.
गीत के बोल:
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
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Har ghadi khud se ulajhna-Jagjit Singh
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