फूलों की महक लहरों की लचक-कन्यादान १९६८
जो फिल्म को सार्थकता प्रदान करता है. फिल्म का
कथानक थोड़ा कन्फ्यूज कराने वाला है. रहस्य पर
से पर्दा काफी देर बाद उठता है.
आदमी की गैर ज़िम्मेदाराना क्रियाकलापों के ऊपर
इसमें रौशनी डाली गसी है और समस्यापूर्ति भी है
नारी के लिए गीत की अंतिम पंक्तियों में. आखिर कब
तक सहे और चुप रहे वो. उसे जीवन के अंधियारों
से बाहर निकलना ही होगा.
पुरुष प्रधान समाज नारी की प्रगतिशीलता को स्वीकार
नहीं कर पाता. पीढ़ी दर पीढ़ी जो सोच चली आई है
वो उसे नारी को अपने से आगे बढ़ते नहीं देख पाती.
कविवर नीरज का लिखा गीत है जिसे महेंद्र कपूर
ने गाया है शंकर जयकिशन की धुन पर.
गीत के बोल:
फूलों की महक लहरों की लचक
बिजली की चुरा कर अंगडाई
जो शकल बनाई कुदरत ने
औरत वो यहाँ बन कर आई
बन कर आई
बेटी वो बनी पत्नी वो बनी
माता वो बनी साथी वो बनी
परमेश्वर
परमेश्वर मान पति को और
मंदिर में दिया बाती वो बनी
यूं इंतज़ार स्वामी का किया
खिड़की पे शमा सी जलती रही
वो बाहर रास रचता रहा
ये घर में हाय सिसकती रही
सिसकती रही
हाय क्यों रूठी हो जाने बहार बोलो ना
और अब होगा नहीं इंतज़ार बोलो ना
हाय क्यों रूठी हो जाने बहार बोलो ना
पहलू में आ जा साँसों में घुल जा
बाहों में सो जा जाम में ढल जा
ओ पहलू में आ जा साँसों में घुल जा
बाहों में सो जा जाम में ढल जा
रात आयेगी ना ये बार बार बोलो ना
हाय क्यों रूठी हो जाने बहार बोलो ना
और अब होगा नहीं इंतज़ार बोलो ना
और फिर आ ही गया दिन भी वो मनहूस कि जब
मर्द की प्यास ने ये रंग नया दिखलाया
आशियां अपना जो था हाय पराया वो हुआ
भंवरा और एक और नई तितली लिये घर आया
मौत के सिवा गरीब के ज़ख्म का नहीं कोई इलाज
वाह री ओ दुनिया बेशरम वाह रे ओ बेहया समाज
कितनी कलियाँ तेरी राह में
खिल के भी न मुस्कुरा सकीं
कोई जा की कोठे पे चढ़ी
कोई हाय डूब कर मरी
हाय औरत है चीज़ क्या तू भी
खा के ठोकर भी प्यार करती है
जिसके हाथों तू लूटी जाती है
उसपे ही जान निसार करती है
तू नहीं जानती है इतना भी
खुदकुशी खुद नरक की राह है एक
ज़ुल्म करना ही बस गुनाह नहीं
ज़ुल्म सहना भी तो गुनाह है एक
भूल कर अपना फ़र्ज़ जब मांझी
खुद ही कश्ती डुबा दे पानी में
तब किसी और नाव पर जाना
है नहीं पाप ज़िंदगानी में
उठ कोई और हमसफ़र चुन ले
जोड़ रिश्ता नई कहानी से
है अँधेरे में जो तेरी बहनें
मौत को उनकी ज़िंदगानी दे
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Phoolon ki mahak-Kanyadan 1968
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