कहाँ तक हम उठायें गम-आरजू १९५०
के भंवर के सर्कल्स बढते जाते हैं. फ़िर निकलना शुरू होती है
आह. आह कब कराह में बदल जाती है मन को मालूम नहीं
पड़ता. कराह के साथ शुरू होता है विलाप.
मिनिमलिस्टिक ओर्केस्ट्रेशन वाली मेलोडी पर तैरता ये गीत
सुनिए फिल्म आरजू से लता मंगेशकर की आवाज़ में. इसे
लिखा है मजरूह सुल्तानपुरी ने और इसकी तर्ज़ बनाई है
अनिल बिश्वास ने.
गीत के बोल:
कहाँ तक हम उठायें गम जियें अब या के मर जायें
कहाँ तक हम उठायें गम जियें अब या के मर जायें
अरे ज़ालिम मुकद्दर ये बता दे हम किधर जायें
अरे ज़ालिम मुकद्दर ये बता दे हम किधर जायें
हम उनका नाम ले कर काट देंगे जिंदगी अपनी
हम उनका नाम ले कर काट देंगे जिंदगी अपनी
न वो आयें मगर मिलने का फ़िर वादा तो कर जायें
न वो आये मगर मिलने का फ़िर वादा तो कर जायें
पपीहे से कहा गाये ना वो नगमे बहारों के
पपीहे से कहा गाये ना वो नगमे बहारों के
कहो गुलशन उजड जाए कहो कलियाँ बिखर जायें
कहो गुलशन उजड जाए कहो कलियाँ बिखर जायें
अरे ज़ालिम मुकद्दर ये बता दे हम किधर जायें
कहाँ तक हम उठायें गम जियें अब या के मर जायें
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Kahan tak ham uthayen gham-Arzoo 1950
Artist: Kamini Kaushal
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