रहने को घर नहीं-सड़क १९९१
रहन सहन का स्तर संसाधनों और सोच पर निर्भर करता
है. एक पीढ़ी के पास पैसा आ जाए तो ये ज़रूरी नहीं कि
उसकी अगली पीढ़ी का स्तर सुधर जाए. सुधार के लिए
पहली पीढ़ी को पहल करना पड़ेगी. स्तर में सुधार से ये
मतलब नहीं कि घर में हेलिकॉप्टर ला के रख दिया जाये.
समय के साथ साथ सोच में समृद्धि भी आना आवश्यक है.
इसके लिए ज़री वाला डायपर पहनने की भी ज़रूरत नहीं
है, कॉटन या नायलोन से भी काम चल जाता है.
एक सामान्य म्रूत्ति(mrootti as many of the people call it in
Delhi ) कार को बल्ले बल्ले करते हुए किसी उड़न कार के
माफिक सड़कों पर चलाने से भी स्तर में सुधार नहीं आता.
सभ्यता और संस्कारों के संगम के साथ साधनों के उचित
और optimum इस्तेमाल से ही ये संभव है. शौच(आलय)
को तो सुधार लिया सोच कब सुधरेगी हमारी?
हिपोक्रिटिक सोच से भी किसी का भला नहीं हो पाता. ये
भी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आने वाली बीमारी है. जो पिछली
कई पीढ़ियों से संसाधन संपन्न हैं वे समाज के बाकी के
हिस्सों के बारे में अलग सोच रखते हैं. पहाड़ियों पर बसे
कुछ खास किस्म के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ लेने से संस्कार
या संस्कृति भूत की तरह अंदर नहीं घुस जाती. उसके लिए
समाज के बीच रहना पड़ता है, मूल्यों को समझना पड़ता
है. अपने से नीचे वाली जनता को हेय दृष्टि से देखने से
क्या आपके सामाजिक दायित्व पूरे हो जाते हैं ?
कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें बढ़िया संस्थानों से पढ़े हुए
विद्यार्थी मल्टीनेशनल की नौकरियां ठुकरा कर आम जनता
के बीच काम कर रहे हैं. आम जनता के बीच काम करने
का मतलब NGO चलाने से नहीं है. हमारे देश में ढेर सारे
NGO फर्जीवाड़े के लिए चलाये जा रहे हैं. विदेश से मिलने
वाला पैसा हजम करने के लिए और काले धन को सफ़ेद
करने के लिए. सभी ऐसे नहीं हैं. कुछ NGO समर्पण भाव
से जनता के लिए सार्थक काम भी कर रहे हैं.
सड़क पर घूमने वाला ही सड़क छाप नहीं हो जाता. वो
पैदल घूम रहा है इसलिए सड़क छाप और आप चतुर्चक्रीय
वाहन में घूम रहे हैं इसलिए आप श्रेष्ठी वर्ग के, ऐसा नहीं
होता. प्रकृति के सिद्धांत सबके लिए एक समान होते हैं.
सिद्धांत के हिसाब से मानें तो सड़क पर हर घूमने वाला
सड़क छाप ही है.
सुनते हैं फिल्म सड़क से एक गीत जिसमें सड़क पर रहने
वालों का दर्द १००-२०० ग्राम बांटा गया है. पूरे दर्द के लिए
३-४ मिनट के गाने में स्कोप कम होता है.
समीर का गीत है और इसे कुमार सानू, देवाशीष दासगुप्ता
संग जुनैद अख्तर ने गाया है. नदीम श्रवण ने धुन बनाई
है.
गीत के बोल:
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
अपना खुदा है रखवाला अब तक उसी ने है पाला
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
अपना खुदा है रखवाला अब तक उसी ने है पाला
अपनी तो जिंदगी कटती है फुटपाथ पे
ऊंचे ऊंचे ये महल अपने हैं किस काम के
हमको तो माँ बाप के जैसी लगती है सड़क
कोई भी अपना नहीं रिश्ते हैं बस नाम के
अपने जो साथ है ये अँधेरी रात है
अपने जो साथ है ये अँधेरी रात है
अपना नहीं है उजाला अब तक उसी ने है पाला
ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू
ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू ज़ू
ये कैसा मुल्क है ये कैसी रीत है
याद करते हैं हमें लोग क्यूँ मरने के बाद
अंधे बहरों की बस्ती चारों तरफ अंधेर है
सबके सब लाचार हैं कौन सुन किसकी फ़रियाद
ऐसे में जीना है हमको तो पीना है
ऐसे में जीना है हमको तो पीना है
जीवन ज़हर का है प्याला अब तक उसी ने है पाला
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं
अपना खुदा है रखवाला अब तक उसी ने है पाला
अपना खुदा है रखवाला अब तक उसी ने है पाला
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Rehne ko ghar nahin-Sadak 1991
Artists: Sanjay Dutt, Deepak Tijori, Neelima Azeem, Javed Khan
3 comments:
अच्छा है
किशोर के दो क्लोन गाने में !
चांदनी जी सुन रही हैं. पहचानिये कौनसी लाइन किसने गाई?
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