Jun 4, 2020

चमेली की शादी-शीर्षक गीत १९८६

आने जाने के सिलसिले में बॉलीवुड को एक और आघात
लगा बासु चटर्जी के अवसान से. दर्शकों के चहेते निर्देशक
बासु चटर्जी हालंकि काफी समय से फिल्म निर्देशन और
निर्माण से दूर रहे मगर उनकी उपस्थिति से शायद फिल्म
उद्योग के कल्पनाशील कलाकारों को बल ज़रूर मिलता था.

उनके योगदान को फ़िल्मी टेक्स्ट बुक के एक चैप्टर जैसा
समझा जा सकता था. अपने समकालीनों से वे कुछ मायनों
में अलग थे और वो है दर्शकों से जुड़ाव. उनकी फिल्मों से
दर्शक कब बंध जाता है उसे मालूम ही नहीं पड़ता है.

फिल्मों की सार्थकता एक गंभीर विषय है और उस पर
गंभीरता से कार्य करने वाले कुशल चितेरे बिरले ही हुए हैं
हम देश के सम्पूर्ण सिनेमा कि बात कर रहे हैं यहाँ पर.
सिनेमा केवल बॉलीवुड का नाम नहीं है उससे परे भी एक
दुनिया है जिसमें टी वी भी आता है. धारावाहिक एक और
माध्यम है अभिव्यक्ति का जो आज के समय में जनता से
ज्यादा जुडा है.

कुछ पोस्ट पहले ही हमने उन्हें याद किया था जब फिल्म
उस पार के गाने का जिक्त किया था. साहित्य से वे जुड़े
रहे और उनकी अधिकाँश फिल्मों के कथानक के मूल में
अच्छा साहित्य है. उन्होंने लेखक राजेंद्र यादव के उपन्यास
प्रेत बोलते हैं पर फिल्म बनाई-सारा आकाश जिसके संवाद
कमलेश्वर ने लिखे थे तो मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है
पर रजनीगंधा फिल्म बनाई. ये संयोग हो सकता है कि
साहित्यकार पति-पत्नी दोनों की रचनाओं पर उन्होंने काम
किया.

अंग्रेजों के ज़माने से सरकारी दफ्तरों से आबाद, मध्यम वर्ग
और नौकरीपेशा लोगों के शहर अजमेर में जन्मे बासु चटर्जी
ने मध्यम वर्ग और उनकी जीवनचर्या पर काफ़ी फ़िल्में बनाईं.

दूरदर्शन के ज़माने में रजनी और ब्योमकेश बक्षी धारावाहिकों
ने काफ़ी प्रशंसा प्रसिद्धि अर्जित की. ये इस बात का प्रतीक है
कि शिद्दत से और समर्पण से किया गया कार्य किसी भी जगह
और माध्यम पर अपना रंग ज़रूर दिखाता है. सरलता भी ज़रूरी
है. दांत मांजने के लिए आपको जिमनास्टिक्स दिखलाने की
आवश्यकता नहीं है. सर्कस करने से दांत ज्यादा साफ होते हैं
ऐसा किसी वैज्ञानिक या डॉक्टर ने अभी तक कहीं नहीं लिखा.

बासु चटर्जी की फ़िल्में रजनीगन्धा और चितचोर की तो सभी बातें
किया करते हैं अतः हम उन फिल्मों के विवरण यहाँ रिपीट नहीं
करना चाहेंगे सिवाय इस बात के कि चितचोर का रीमेक जैसा
राजश्री ने मैं प्रेम की दीवानी हूँ में बनाया मगर वो समय की
कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया.

९० के दशक में उनकी एक फिल्म आई थी गुदगुदी जिसका
कथानक तो अच्छा था मगर उसके प्रभावशाली से नायक की
लुल्ल्पन वाली कॉमेडी ने फिल्म का प्रभाव कम कर दिया. इस
रोल में शायद फारूक शेख जैसा कलाकार ज्यादा उपयुक्त होता.
ढंग की कॉमेडी शायद अभी तक पब्लिक के समझ आई नहीं.
इन सब नामचीनों से तो राजपाल यादव बेहतर कर लेता है.
निर्देशक कभी कभी अपने आप को कितना असहाय मह्सूस
करता होगा जब उसे अपने मन माफिक काम या कलाकार ना
मिले.

हम याद करेंगे चमेली की शादी फिल्म को जिसे सभी वर्ग के
दर्शकों की सराहना मिली थी और सिनेमा हॉल का दृश्य भी उस
फिल्म के समय काफ़ी रोचक हो जाया करता था. पहलवानी और
ब्रह्मचारी चरणदास उर्फ अनिल कपूर, चरणदास के गुरु पहलवानी
के उस्ताद ओम प्रकाश, कल्लूमल कोयले वाला, उसकी बेटी चमेली,
कल्लूमल की बीबी के रोल में भारती अचरेकर, वकील के रोल में
अमजद खान, चरणदास के भाई के रोल में सत्येन कप्पू, भूतनी के
संवाद बोलने वाले अन्नू कपूर और राम सेठी जो अमिताभ की
फिल्मों के आवश्यक हिस्सा होते थे किसी समय प्यारेलाल के रूप
में, इन सभी के अभिनय ने इस फिल्म को यादगार बना दिया.
इस फिल्म के गीत खूब चले और बजे. 

फिल्म से सुनते हैं शीर्षक गीत जिसे अनिल कपूर और कोरस ने
गाया है. अनजान की रचना है और कल्याणजी आनंदजी का संगीत.



गीत के बोल:

सब्र का फल मीठा होता है
बाद में पढ़ लेना
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Chameli ki shadi-Titlesong

Artists: Anil Kapoor

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