ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो -एक कली मुस्काई १९६८
कुछ कुछ ऑटो रिक्क्षा के होर्न जैसे संगीत से शुरू होता
ये गीत मुझे बहुत पसंद है। ऐसा लगता है जैसे हिरोइन
पहाड़ से कूदने जा रही हो। लेकिन ऐसा नहीं है। सस्पेंस ख़त्म
होता है और मालूम पड़ता है कि वो हमारे हीरो से मिलने जा रही
है। बहुत ही रोमांटिक सा गीत है ये। जॉय मुखर्जी के आखिरी दौर
का एक चर्चित गाना। इसमे उनके साथ मीरा नाम की अभिनेत्री है।
कली शायद एक ही फ़िल्म में मुस्काई । दर्शक नहीं मुस्कुराये इसलिए
शायद बाद में उनको और फ़िल्में नहीं मिली। गीत लिखा है राजेंद्र कृष्ण
ने और संगीत है मदन मोहन का। जुल्फें उतनी भी बिखरी नहीं है जितना
गाने में जिक्र किया गया है। आँखों में गुलाबी डोरे तो कम दिखाई देते हैं
उसकी जगह आधा किलो काजल लगाया हुआ जरूर दिखाई दे रहा है।
दूसरा अंतरा शुरू होने पर आप महसूस करंगे की जॉय मुखर्जी की जुल्फें
ज्यादा बिखरती नज़र आ रही हैं।
गाने के बोल:
ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा
बदली का क्या होगा
हाँ, हाँ
बदली का क्या होगा
हाय, ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा
बदली का क्या होगा
हाँ, हाँ
बदली का क्या होगा
आंख शराबी तेरी
हाय, उसमे गुलाबी डोरे
डोरे डोरे
आंख शराबी तेरी
उसमे गुलाबी डोरे
शर्म के मारे दहकें
गाल ये गोरे गोरे
गोरे गोरे
शर्म के मारे दहकें
गाल ये गोरे गोरे
आग भड़कती चली आई ही
आग भड़कती चली आई ही
ऐ जी सोचो तो ज़रा
शोलों का क्या होगा
ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो
ले बैठी हैं हमको
ये अनजान अदाएं
हाँ, ले बैठी हैं हमको
ये अनजान अदाएं
छोडके डर को तेरे
बोल कहाँ हम जाएँ
हाँ, हाँ
छोडके डर को तेरे
बोल कहाँ हम जाएँ
जाल फैलाती चली आई हो
जाल फैलाती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा
पंछी का क्या होगा
ज़ुल्फ़ बिखराती चली आई हो
ऐ जी सोचो तो ज़रा
बदली का क्या होगा
हाय, हाँ
बदली का क्या होगा
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