हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले-आखिरी दांव १९५८
मुखड़े में ये शब्द आता है वे कुछ अलग से सुनाई
नहीं देते आपको. इधर तो गीत ही इस शब्द से शुरू
हो रहा है. नशीला सा गीत है. हालांकि इस गाने की
शुरूआत तड़प वाली आवाज़ से होती है.
मनमोहक धुन है और आपको भाव प्रकट करने वालों
से हमदर्दी हो जाती है. इस गीत का प्रभाव बड़े परदे
पर सोचिये, कैसा होता होगा. मल्टीप्लेक्स के ज़माने में
हमें पुरानी फ़िल्में बड़े परदे पर देखने का मौका ही नहीं
मिलता.
मजरूह सुल्तानपुरी के गीत को रफ़ी और आशा गा रहे
हैं मदन मोहन की धुन पर.
गीत के बोल:
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले
रिश्ते-नाते वो सारे तोड़ चले
हमसफ़र साथ
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले
हमसफ़र साथ
रास्ता साफ़ था तो चलते रहे
साथ हँसते रहे मचलते रहे
मोड़ आया तो मुँह को मोड़ चले
हमसफ़र साथ
सपने टूटे पड़े हैं राहों में
सपने टूटे पड़े हैं राहों में
दर्द की धूल है निगाहों में
दिल पे क़दमों के नक़्श छोड़ चले
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले
हमसफ़र साथ
जब उन्हें हमसे प्यार ही न रहा
रोयें क्या इंतज़ार भी न रहा
हम भी दामन को अब निचोड़ चले
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले
रिश्ते-नाते वो सारे तोड़ चले
हमसफ़र साथ
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Hamsafar sath apna chhod chale-Aakhiri Daon 1958
Artists: Nutan, Shekhar
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