गये दिनों का सुराग़ लेकर-मीराज-ए-गज़ल १९८३
रचना सुनते हैं जिसे नासिर काज़मी ने लिखा और गुलाम अली
ने संगीतबद्ध किया. ८० के दशक में ये एल्बम रिलीज़ हुआ था
और रिलीज़ के बाद काफी लोकप्रिय भी.
रचना काफी बड़ी है और उसमें से चंद शेर ही इसमें गाने के लिए
लिए गए हैं. ऐसी कुछ ग़ज़लें हम आपको सुनवा चुके हैं जो मूल
रूप से बड़ी हैं मगर गाने के लिए पूरे शेर प्रयोग में नहीं लाये गये.
इसे आप हबीब वली मोहम्मद की आवाज़ में अगर सुनने का शौक
फ़रमाते हैं तो इधर है-हबीब वली वर्ज़न
गज़ल के बोल:
गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानुस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
बस एक मोती सी छब दिखा कर
बस एक मोती सी छब दिखा कर बस एक मीठी सी धुन सुना कर
सितारा-ए-शाम बन के आया ब-रंग-ए-ख़्वाब-ए-सहर गया वो
अजीब मानुस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की है उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो
अजीब मानुस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
वो हिज्र की रात का सितारा
वो हिज्र की रात का सितारा वो हम-नफ़स हम-सुख़न हमारा
सदा रहे उसका नाम प्यारा
सदा रहे उसका नाम प्यारा सुना है कल रात मर गया वो
अजीब मानुस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
वो रात का बेनवा मुसाफ़िर
वो रात का बेनवा मुसाफ़िर वो तेरा शाइर वो तेरा 'नासिर'
तेरी गली तक तो हमने देखा था फिर न जाने किधर गया वो
अजीब मानुस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
गये दिनों का सुराग़ लेकर
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Gaye dinon ka surag le kar-Meeraj-e-ghazal 1983
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