चलते चलते, यूँ ही कोई-पाकीज़ा १९७२
गुणी संगीतकार थे। पाकीज़ा रिलीज़ होने के पहले ही इस दुनिया को
अलविदा कह गए। उनका अन्तिम समय फ़ाकाकशी में गुज़रा। इस फ़िल्म
को १९७२ में रिलीज़ के वक्त दर्शकों का बहुत अच्छा प्रतिसाद नहीं मिला।
एक महीने बाद मीना कुमारी भी इस दुनिया से पलायन कर गयीं। उसके
बाद इस फ़िल्म की ओर दर्शक खिंचने शुरू हुए और इस फ़िल्म ने आय के
रिकॉर्ड कायम किए । फ़िल्म का कथानक बढ़िया था । शायद ये समय से
आगे की फ़िल्म थी इसलिए शुरुआती टिकट खिड़की की भीड़ से वंचित रही।
नौशाद ने फ़िल्म का पार्श्व संगीत तैयार किया और एक दो गाने भी बनाये।
ये गीत फ़िल्म का सिगनेचर गीत जैसा है । कैफ़ी आज़मी के बोलों को सुरों
में बांधा है गुलाम मोहम्मद ने। इसमे रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ विशेष
प्रभाव पैदा करती है। इस फ़िल्म के संगीत ने ही इतनी कमाई कर ली
की वो गुलाम मोहम्मद को रईस बनाने के लिए काफ़ी था। मगर किस्मत
को कुछ और मंजूर था । ये गीत लता मंगेशकर का गाया हुआ है और इसके
बोल लिखे हैं कैफ़ी आज़मी ने। ये चिराग बुझ रहे हैं - इस पंक्ति पर बहुत
ज़ोर है इस गाने में।
गाने के बोल:
चलते-चलते
चलते-चलते
यूँही कोई मिल गया था
यूँही कोई मिल गया था सर-ए-राह चलते-चलते
सर-ए-राह चलते-चलते
वहीं थम के रह गई है
वहीं थमके रह गई है मेरी रात ढलते-ढलते
मेरी रात ढलते-ढलते
जो कही गई न मुझसे
जो कही गई न मुझसे, वो ज़माना कह रहा है
वो ज़माना कह रहा है
के फ़साना,
के फ़साना बन गई है
के फ़साना बन गई है मेरी बात टलते-टलते
मेरी बात टलते-टलते
यूँही कोई मिल गया था
यूँही कोई मिल गया था, सर-ए-राह चलते-चलते
सर-ए-राह चलते-चलते
यूँही कोई मिल गया था, सर-ए-राह चलते-चलते
चलते-चलते
सर-ए-राह चलते-चलते,
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
चलते-चलते
यूँही कोई मिल गया था
यूँही कोई मिल गया था
शब-ए-इंतज़ार आख़िर,
शब-ए-इंतज़ार आख़िर, कभी होगी मुख़्तसर भी
कभी होगी मुख़्तसर भी
ये चिराग़,
ये चिराग़ बुझ रहे हैं
ये चिराग़ बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते-जलते
मेरे साथ जलते-जलते
ये चिराग़ बुझ रहे हैं
ये चिराग़ बुझ रहे हैं
ये चिराग़ बुझ रहे हैंये चिराग़ बुझ रहे हैंये चिराग़ बुझ रहे हैं
ये चिराग़ बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते-जलते
मेरे साथ जलते-जलते
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