कली के रूप में चली हो धूप में-नौ दो ग्यारह १९५७
फिल्म: नौ दो ग्यारह
वर्ष: १९५७
गीतकार:मजरूह सुल्तानपुरी
संगीतकार:एस डी बर्मन
गायक: आशा, रफ़ी
कलाकार:देव आनंद, कल्पना कार्तिक
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गाने के बोल:
कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ ओ ओ
कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ
सुनो जी मेहरबान, होगे न तुम जहाँ, वहाँ
कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ
सुनो जी मेहरबान, होगे न तुम जहाँ, वहाँ
काहे कहो जल्दी, कि हम तो हैं चल दी
अपने दिल के सहारे
अब न रुकेंगे तो दुखने लगेंगे
पाँव नाज़ुक तुम्हारे
काहे कहो जल्दी, कि हम तो हैं चल दी
अपने दिल के सहारे
अब न रुकेंगे तो दुखने लगेंगे
पाँव नाज़ुक तुम्हारे
छोड़ो दीवानापन, अजी जनाब मन कहाँ?
सुनो जी मेहरबान, होगे न तुम जहाँ, वहाँ
कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ
चल न सकेंगे सम्भल न सकेंगे
हम तुम्हारी बला से
मिला न सहारा तो आओगी दुबारा
खिंच के मेरी सदा पे
हो, चल न सकेंगे सम्भल न सकेंगे
हम तुम्हारी बला से
मिला न सहारा तो आओगी दुबारा
खिंच के मेरी सदा पे
राहों में हो के गुम, जाओगे छुप के तुम, कहाँ?
सुनो जी मेहरबान, होगे न तुम जहाँ, वहाँ
कली के रूप में चली हो धूप में कहाँ
मानोगे न तुम भी तो ए लो चले हम भी
अब हमें न बुलाना
जाते हो तो जाओ, अदायें न दिखाओ
दिल न होगा निशाना
अरे, मानोगे न तुम भी तो ए लो चले हम भी
अब हमें न बुलाना
जाते हो तो जाओ, अदायें न दिखाओ
दिल न होगा निशाना
हवा पे बैठ के, चले हो ऐंठ के, कहाँ?
सुनो जी मेहरबान, होगे न तुम जहाँ, वहाँ
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