बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गयी - रोटी कपड़ा और मकान १९७४
अर्थ तो है नहीं फिर कैसी व्यवस्था। भुखमरी के अर्थशात्र पर महंगे
शोध होते हैं मगर भुखमरी की मार झेल रहे आम जन तक रोटी
पहुँच पाती है या नहीं अर्थशास्त्र विषय के सिलेबस में नहीं है।
पिछले तीन साल में महंगाई जिस गति से ऊँचाई पर पहुंची है उस
पर शोध की नहीं गहन चिंतन और सुधार के लिए कुछ ठोस कदम
उठाये जाने की आवश्यकता है। जिसको देखो वो यही कहता मिलेगा
बजट बिगड़ गया है। पांच रूपये में पांच घूँट चाय मिलती है अब। खाद्य
पदार्थों के दाम सन २००५ की तुलना में लगभग दुगने हो चुके हैं। दालों
के दाम में तो ऐसा लगता है व्यापारी प्रतिस्पर्धा कर रहे हों-कौन ऊंची
बोली बोलेगा।
इसका दूसरा पहलू और भी है जो इधर आपको दिखेगा
सुरेश के ब्लॉग पर एक कार्टून में - kahan है महंगाई ? और इस विषय
पर अगर आप वाकई कुछ सटीक कारण जानना चाहें कि क्या वजह है
अनाप शनाप दामों में बढ़ोत्तरी की तो रविवार का ये मुद्दा वाला परिशिष्ट
अवश्य देखें- jaanlewa महंगाई।
अब गीत की बात करते हैं ये गीत वर्मा मालिक का लिखा और लक्ष्मी प्यारे
का संगीतबद्ध किया हुआ है। इसमें आपको चार गायकों की आवाजें सुनाई
देंगी-लता मंगेशकर, महेंद्र कपूर, नरेन्द्र चंचल और जानी बाबू कव्वाल।
फिल्म रोटी कपडा और मकान का गीत आज भी प्रासंगिक है। तकरीबन
३५ से ज्यादा साल हो गए हैं इस गीत को बने मगर ये हर युग में अपनी याद
ताज़ा करवाता रहेगा।
गीत के बोल:
उसने कहा तू कौन है, मैंने कहा उल्फ़त तेरी
उसने कहा तकता है क्या, मैंने कहा सूरत तेरी
उसने कहा चाहता है क्या, मैंने कहा चाहत तेरी
मैंने कहा समझा नहीं, उसने कहा क़िस्मत तेरी
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई
दूसरी तो यार की जुदाई मार गई
तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
तबीयत ठीक थी और दिल भी बेक़रार ना था
ये तब की बात है जब किसी से प्यार ना था
जब से प्रीत सपनों में समाई मार गई
मन के मीठे दर्द की गहराई मार गई
नैनों से नैनों की सगाई मार गई
सोच सोच में जो सोच आई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
कैसे वक़्त में आ के दिल को दिल की लगी बीमारी
मंहगाई की दौर में हो गई मंहगी यार की यारी
दिल की लगी दिल को जब लगाई मार गई
दिल ने की जो प्यार तो दुहाई मार गई
दिल की बात दुनिया को बताई मार गई
दिल की बात दिल में जो छुपाई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर
पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं मुट्ठी में शक्कर आती है
हाय मंहगाई मंहगाई ...
दुहाई है दुहाई मंहगाई मंहगाई ...
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत ना आई, हाय मंहगाई ...
शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई
पौडर वाले दुद्ध दी मलाई मार गई
राशन वाली लैन दी लम्बाई मार गई
जनता जो चीखी चिल्लाई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
गरीब को तो बच्चों की पढ़ाई मार गई
बेटी की शादी और सगाई मार गई
किसी को तो रोटी की कमाई मार गई
कपड़े की किसी को सिलाई मार गई
किसी को मकान की बनवाई मार गई
जीवन दे बस तीन निसान - रोटी कपड़ा और मकान
??? ??? के हर इन्सान
खो बैठा है अपनी जान
जो सच सच बोला तो सच्चाई मार गई
और बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
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Baaki kuchh bacha to-Roti kapda aur makaan 1974
Artists: Manoj Kumar, Mausami Chatterji
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