ऐसे में कछु कहा नहीं जाए-बम्बई का बाबू १९६०
में हमें भाता है क्यूंकि हमारे जींस में लोक गीतों के प्रति रूचि
पीढ़ी दर पीढ़ी आई है. हम कितने भी आधुनिक हो जाए मगर
पानी को पनैया बोलने का आनंद नहीं छोड़ पाएंगे.
मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से ही मालूम पढता है वे किस क्षेत्र
से आये थे. उन्होंने फ़िल्मी गीतों में देसी प्रचलित शब्दों का समय
समय पर उपयोग किया और हमारी भाषा और भावों को बनाये
रखने में अतुलनीय योगदान दिया है. इस गीत में केवल एक
शब्द “कछु” से पूरे गीत का अंदाज़ बदल गया है. गीत में लोक
गीतों के आवश्यक तत्व-पीपल, हवा, चंदा भी मौजूद हैं. इसकी
धुन भी संगीतकार ने काफी मेहनत से बनाई है. सन १९६० से
ये गीत आनंदित करता चला आ रहा है निरंतर, संगीत में दम
है, तभी तो.
https://www.youtube.com/watch?v=_7PN5stySeI
गीत के बोल:
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में
कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
अपना है या बेगाना कौन मोहे समझाए
अनजाने से कोई कैसे रे निभाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
पीपल तले तले हवा रे पागल
चंदा हँसे फंसे जब आँचल
पीपल तले तले हवा रे पागल
चंदा हँसे फंसे जब आँचल
उलझे लट मेरी कंगना से हाय रे
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
कहा नहीं जाए रे कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में
ठहरे कभी कही मन भागे
पीछे चलूँ चलूँ कभी आगे
ठहरे कभी कही मन भागे
पीछे चलूँ चलूँ कभी आगे
इक मन आये और इक मन जाए रे
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
कहा नहीं जाए रे कहा नहीं जाए
ऐसे में कछु कहा नहीं जाए
ऐसे में
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Aise mein kachhu kahan nahin jaaye-Bambai ka baboo 1960
Artists-Suchitra Sen, Dev Anand
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