सलाम-ऐ-इश्क मेरी जान -मुक़द्दर का सिकंदर १९७८
गिना जाता है। फ़िल्म आई थी १९७८ में । उस समय में
अमिताभ और रेखा की जोड़ी बहुत प्रसिद्ध थी। फ़िल्म में
रेखा ने एक तवायफ़ की भूमिका निभाई है। अमिताभ कोठे पे
जाता है और जैसा कि हिन्दी फिल्मों में होता आया है, कोई भी
कभी भी गाना शुरू कर सकता है। इस गाने की ये पंक्तियाँ बहुत
दोहराई जाती थी अमिताभ प्रेमियों द्वारा -"इसके आगे की अब
दास्तान मुझसे सुन, सुनके तेरी नज़र डबडबा जाएँगी........ "
लता और किशोर के युगल नगमे बहुत पसंद किए जाते रहे हैं
संगीत रसिकों द्वारा। इस गाने को मैंने बच्चे से लगाकर बूढे को
समान रूप से सुनते हुए पाया है। फ़िल्म रिलीज़ होते वक्त मुझे
पता था कि इस फ़िल्म में कल्याणजी आनंदजी का संगीत है।
गायक: लता, किशोर
गीतकार: प्रकाश मेहरा
संगीत: कल्याणजी आनंदजी
गाने के बोल:
इश्क वालों से न पूछो
कि उनकी रात का आलम
तन्हा कैसे गुज़रता है
जुदा हो हमसफ़र जिसका,
वो उसको याद करता है
न हो जिसका कोई वो
मिलने की फरियाद करता है
सलामे-इश्क मेरी जान ज़रा कुबूल कर लो
तुम हमसे प्यार करने कि ज़रा सी भूल कर लो
मेरा दिल बेचैन,
मेरा दिल बेचैन है हमसफ़र के लिए
मैं सुनाऊँ तुम्हें बात इक रात की
चाँद भी अपनी पूरी जवानी पे था
दिल में तूफ़ान था, एक अरमां था
दिल का तूफ़ान अपनी रवानी पे था
एक बादल उधर से चला झूम के
देखते देखते चाँद पर छा गया
चाँद भी खो गाया उसके आगोश में
उफ़ ये क्या हो गाया जोश ही जोश में
मेरा दिल धड़का,
मेरा दिल तड़पा किसी की नज़र के लिए
सलामे-इश्क मेरी जान ज़रा कुबूल कर लो
इसके आगे की अब दास्ताँ मुझसे सुन
सुनके तेरी नज़र डबडबा जाएगी
बात दिल की जो अब तक तेरे दिल में थी
मेरा दावा है होंठों पे आ जाएगी
तू मसीहा मुहब्बत के मारों का है
हम तेरा नाम सुनके चले आए हैं
अब दवा दे हमें या तू दे दे ज़हर
तेरी महफ़िल में ये दिलजले आए हैं
एक एहसान कर, एहसान कर,
एक एहसान कर अपने मेहमान पर
अपने मेहमान पर एक एहसान कर
दे दुआएं, दे दुआएं तुझे उम्र भर के लिए
सलामे-इश्क मेरी जान ज़रा कुबूल कर लो
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Salaam-e-ishq meri jaan zara kabool-Muqaddar ka sikandar 1978
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